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श्रद्धा भाव और विश्वास के बिना प्रभु के श्री चरणों की प्राप्ति संभव नहीं-आचार्य शांतनु जी महाराज

कुदरहा,बस्ती अजमत अली बस्ती: श्रद्धा भाव और विश्वास के बिना प्रभु के श्री चरणों की प्राप्ति संभव नहीं है। सदगति की प्राप्ति करने हेतु कीर्तन करना परमावश्यक है। श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ ही मर्यादा संस्कृति, भक्ति व जनकल्याण का पोषक है। यह वह संविधान है जिसके बल पर सनातन एवं भारतीय संस्कृति टिकी है। यह सद्विचार मानस मर्मज्ञ आचार्य शांतनु जी महाराज ने नगर पंचायत गायघाट के झारखण्डेश्वर नाथ शिव मन्दिर परिसर में मे चल रहे ग्यारह दिवसीय संगीतमयी श्री रामकथा के तीसरे दिन दिन शिव पार्वती विवाह के प्रसंग को विस्तार देते हुए कहा कि पार्वती जी श्रद्धा की प्रतीक हैं तो शिवजी विश्वाश के प्रतीक हैं अर्थात श्रद्धा और विश्वाश मनुष्य को राम कथा के माध्यम से ही संभव है। जीवन मे श्रद्धा बनती बिगड़ती है। लेकिन विश्वाश अजन्म होता है। संसार मे लोगों के साथ व्यवहार समय के अनुकूल करना चाहिए। लेकिन मन का व्यवहार भगवान से हमेशा के लिए करना चाहिए और संत व भगवान के प्रति मन मे संशय नही करना चाहिए क्योकि भगवान के कथा पर संशय होने के कारण सती शरीर का त्याग करना पड़ा। वहीं सती पार्वती के रुप मे राजा हिमाचंल के यहां पुत्री के रुप मे अवतरित हुई और ऋषिराज नारद की प्रेरणा से पार्वती जी ने तपस्या कर ऋषियों की परीक्षा उत्तीर्ण हुई। श्रद्धा और विश्वास की बिना जीवन में कुछ भी नहीं मिल सकता है। तुलसीदास जी संस्कृति के उद्भट विद्वान थे। उन्होंने रामचरितमानस को व अक्षर से शुरू कर व पर ही समाप्त किया। परमात्मा की प्रतिकूलता को भी जो अनुकूलता में स्वीकार करता है वही सफल होता है। नर रूप के गुरु हरि के समान भक्तों का कल्याण करते हैं। सत्संग के बिना विवेक नहीं होता है सत्संग ही फल है बाकी सब फूल है। राम जी की कृपा के बिना सत्संग नहीं मिलता है। कुसंगस में आकर्षण होता है वही सत्संग के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। राम नाम की महिमा का वर्णन करते हुए कहा कि राम एक एक कर लोगों को तारते हैं। लेकिन राम नाम जपने से करोड़ों लोग तर जाते हैं। असंत के मिलने पर दुख होता है और संत के बिछड़ जाने पर दुख होता है। दुनिया के सबसे ऊंचे आसन कैलाश पर बैठे भगवान शिव के मन में श्री राम कथा सुनने का विचार आता है भगवान शिव कुंभज ऋषि के आश्रम में जाकर श्री राम कथा सुनते हैं। सती माता के मन में संदेह उत्पन्न हो जाता है कि एक साधारण मनुष्य से भोलेनाथ कथा सुन रहे हैं। वापस कैलाश लौटने पर भोलेनाथ सती माता के साथ श्रीराम के दर्शन को चल पड़ते हैं। रास्ते में श्रीराम को स्त्री विरह में देख सती जी को पुनः संशय होता है। पूर्वाग्रह से ग्रसित सती जी परीक्षक के रूप में असफल हो जाती हैं। इधर दक्ष प्रजापति के यहां हो रहे यज्ञ में शिव जी का बुलावा नहीं आता। यह जानकर सती जी भगवान शिव से आदेश लेकर अपने मायके पहुंचती हैं। जहां शिव के लिए कोई स्थान न देखकर योग अग्नि में अपने शरीर को भस्म कर देती है। यह जानकर शिव जी के गण यज्ञ को विध्वंस कर देते हैं और दक्ष प्रजापति का सिर काटकर अग्नि कुंड में डाल देते हैं। कथा में मुख्य रूप से संयोजक स्कन्द पाल, यज्ञाचार्य पं रमाकान्त मिश्र, ओम प्रकाश त्रिपाठी, बालकृष्ण त्रिपाठी पिन्टू, हरिहर प्रसाद शुक्ल, सुरेश गिरी, श्रीकृष्ण त्रिपाठी, शंभू कुमार मिश्रा, प्रेम नारायण आजाद, मोहन पाल, राजेन्द्र लाला प्रधान, सुरेश सोनकर, ओम नारायण शुक्ल, धीरेन्द्र सिंह सहित बड़ी संख्या में स्थानीय श्रद्धालु और क्षेत्रीय गणमान्य मौजूद रहे।
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